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आत्मा, परमात्मा , मन को यदि गहराई से समझ जय तो मेरे बिचार में इस प्रकार दिखेगा ।आत्मा शिथिल और मन चंचल एबम परमात्मा अदृश्य । आत्मा मन से भिन्न स्वभाव के मालिक होते हैं । ये तीनो ही अदृश्य हैं तो आत्मा परमात्मा का ही सूक्ष्म इकाई हुवी ना । इस पूरे बिस्व में जितने भी बस्तु हैं और जिनमे आत्मा का बासना हो वो तमाम परमात्मा स्वरूप हैं।जिसमे मानव को श्रेष्ठ माना गया हैं ।हमारे धर्म शास्त्रों में भी नर और नारायण को स्पस्ट किया गया हैं कि मानव यानी नर और अदृश्य शक्ति नारायण । जो परमात्मा का सूक्ष्म ईकाई आत्मा हैं वही तो हमारे आराध्य नारायण हैं।
तब तो प्रभु को प्रसन्न करने का एक ही मार्ग हैं नर को प्रसन्न रखिये नारायण स्वम प्रसन्न होते रहेंगे । मानव सेवा ही आप के लोक परलोक को आनन्दित करती हैं। ये हमने जो समझा वो सब स्पस्ट करना चाहता हूँ ।
वर्ग अनुकूल उनके लिये जो रीतिरिवाज बनाया गया वो समय काल की मांग थी । सिर्फ 4 वर्गों में ही क्यों ? अधिक या कम क्यो नही !
हमारे शरीर को ही 4 भागो में हम बाट कर देखते हैं किसका क्या धर्म हैं ।
1 कमर से नीचे पाव तक शुद्र इनका धर्म बताया गया हैं सेवा । बिना कमर के नीचे पाव तक के बिना उपयोग हम अथबल ही रहेंगे । ये सभी दिन अपने धर्म को ईमानदारी से निभाता हैं इसमे कोई बदलाव नही हुआ ।
2 कमर से ऊपर गले तक वेस्य इनका धर्म हैं पूर्ति करना। जिससे हमें कार्य या शरीर के संचालन करने बाले तमाम इंद्रियों को खुराक , बल यही से प्राप्त होता हैं ।ये भी अपने कर्म को ईमानदारी से करता हैं । ये जहा बदला वहा अस्वस्थता ने अपना घर बना लिया ।
3 कंधा से हाथ तक को छत्री कहा जाय इनका धर्म हैं रक्षा एबं प्रतिपाल के लीये कर्म करना । यह भी अपने कर्म को पूरा करता हैं ये तो नही बदला ।
4 कंधे से ऊपर सर तक ब्राम्हण मान लेते हैं इनका धर्म हैं जीवन मे ज्ञान अर्जित करना और उसको बाटना इसने भी अपने धर्म को ईमानदारी से निभाया हैं शरीर के तमाम संचालन को दिशा निर्देशित का कार्य करता हैं ।
इतना ही नही सायद पुरुषार्थ के लिये इन चारों शक्तियों को प्राप्त करना पड़ता हैं जो इसके साथ जीवन देखते हैं बास्तविक जीवन मे पुरुषार्थ उनको ही मिलता हैं ।
मगर ये इतने जातियों उप जातियों का धर्म क्या होगा ।ये तो युही अंधबिस्वाश में भटकते रहेंगे । नदी के किनारे बालू खोद कर जल निकाल कर पानी पियेंगे मगर नदी का बहता पानी नही । मात्र यही भरम इनको आज तक मानव में प्रभु का दर्शन नही होने देता । और उनको ही प्रसन्न करने के लीये पाथर(पथल) को पूजते है जिसमे आत्मा का बसना ही नही जो स्वम् निर्जीव स्वरूप में हैं उसमें आपको परमात्मा दिखते हैं । मगर जो सजीव हैं जिसमे प्रभु का बासना हैं उस मानव को जाती,कर्म,ज्ञान,पंथ के आधार पर घृणा करते हैं ।उच नीच भावना से देखते हैं तुलना करते हैं ।जबकि जहा घृणा भेदभाव हो वहाँ परमात्मा कभी प्रसन्न नही हो सकता ।
इसको गहराई से समझने के लिये हमें अध्यन मनन चिंतन करना पड़ता हैं और यही बस्तविक्ता भी हैं ये भूमंडल तो मानवो का हैं फिर हम इसे धर्म,जाती,लिंग,रीतिरिवाज के आधार से अलग अलग करके क्यो अपने मानवता को कलंकित करते हैं ! यह प्रशन हमे स्वम् से अवस्य करना चाहिये ।
फिर अगले अंक में
शांति शक्ति और आनन्द सभी के लीये ।।
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