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मानव शरीर दो के एकीकरण से निर्मित होता हैं ।
1:-ऊर्जा
2:-प्रदार्थ
ऊर्जा चलायमान होता हैं और प्रदार्थ स्थूल । जब ऊर्जा और प्रदार्थ की एकीकरण होती हैं तो बल की उत्पत्ति होती हैं ।जिसके बाद प्रदार्थ भी गतिवान दिखता हैं ।
इसी ऊर्जा को लोग आत्मा भी कहते ये इतने सूक्ष्म और ब्यापक होते हैं कि हमारे चारों तरफ होते हुबे भी इसे हम देख नही पते जिस तरह हम अपना चेहरा स्वम् नही देख पाते हैं,हवा जिसके बिना हम पल भी नहीं रह सकते मगर हम उसे नही देख सकते । हम मात्र महसूस करते हैं ये हम छू कर अपने द्वारा महसूस किये गये को सत्यापित कर सकते हैं क्यो की ये हमारे शरीर के ऊपरी भाग में हैं ।मगर जो हमारे शरीर के आंतरिक भाग में उसे तो हम मात्र महसूस कर सकते हैं । इस से साक्छातकार किया जा सकता हैं जिसके लिये हमें आंतरिक गहराई में उतरना होता हैं जिसके लिये साधना या आंतरिक कार्य कह लीजिये ये ही एक मात्र मार्ग हैं। यह किसी के ज्ञान और बीज्ञान से भिन्न आपके अपने अनुभव का परिणाम होता हैं ।मगर इस प्रक्रिया को प्रारम्भ करने के लिये एक सच्चे मार्गदर्शक की आबश्यक्ता की अनिवार्यता होती हैं । समय काल परिस्थितियों के अनुकूल साधना भी बदलता गया और अस्पस्ट होने के कारन जो कार्य कठिन दिखता था आज स्पस्ट होने के कारन वही कार्य आनन्द मयी लगने लगा हैं।
सिलो ने बहुत ही स्पस्ट कहे हैं ऊर्जा हमे चारो तरफ से घेरे रहती हैं मगर हम पहचान नही पाते हैं मगर हमारे शरीर आबश्यक्ता अनकूल ऊर्जा को ग्रहण करती हैं। ये बहुत ही महत्वपूर्ण बात हैं कि आप अपने द्वारा एकत्रित किये जाने बाले ऊर्जा का प्रयोग किस दिशा में करते हैं। आप इसको जिस दिशा में बढ़ाएंगे आपका शरीर स्वायत उस दिशा में ही बढ़ेगा । एक बात सास्वतसत्य हैं ऊर्जा का बिनाश नही होता तब तो हमारा शरीर जो स्थूल हैं उसके साथ छोड़ देने (मृत्यु) के बाद भी हमारा ऊर्जा गतिवान ही रहता हैं ।फिर तो हमारे द्वारा दिया गया दिशा में ही फिर हम यह कह सकते हैं कि मृत्यु के बाद भी हम जीवित रहते हैं ।मृत्यू के साथ ही सब कुछ नही समाप्त होता हैं ।
इसिलए अपने आंतरिक ऊर्जा को मानविये कार्यो में लगाना चाहिये ताकि विश्व का मानवीकरन हो सके।
जिसके लिये अपने मुलयतम समय मे से कुछ समय निकाल कर प्रत्येक दिन आंतरिक कार्य जरूर करे जिससे आपके स्व का विकाश होगा । आज बस इतनाही फिर मिलते हैं अगले कड़ी के साथ।
शान्ति शक्ति और आनन्द सभी के लिये।
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